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उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ | शाही शायरी
usi kinara-e-hairat-sara ko jata hun

ग़ज़ल

उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ

सरवत हुसैन

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उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ
मैं इक सवार हूँ कोह-ए-निदा को जाता हूँ

रमीदगी का बयाबाँ है और बे-ख़ोर-ओ-ख़्वाब
ग़ुबार करता सुकूत ओ सदा को जाता हूँ

क़रीब ही किसी ख़ेमे से आग पूछती है
कि इस शिकोह से किस क़र्तबा को जाता हूँ

हज़र कि दजला-ए-दुश्वार पर क़दम रखता
शिकार-गाह-ए-फ़ुरात-ओ-फ़ना को जाता हूँ

कहाँ गए वो ख़ुदायान-ए-दिरहम-ओ-दीनार
कि इक दफ़ीना-ए-दश्त-ए-बला को जाता हूँ

सफ़ारत-ए-हद-ए-हैरानगी पे हूँ मामूर
निगार-ख़ाना-ए-हुस्न-ओ-अदा को जाता हूँ

वो दिन भी आए कि इंकार कर सकूँ 'सरवत'
अभी तो माबद-ए-हमद-ओ-सना को जाता हूँ