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उसे ख़लाओं की वुसअतों का तजरबा ही नहीं | शाही शायरी
use KHalaon ki wusaton ka tajraba hi nahin

ग़ज़ल

उसे ख़लाओं की वुसअतों का तजरबा ही नहीं

ओम कृष्ण राहत

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उसे ख़लाओं की वुसअतों का तजरबा ही नहीं
वो मेरे साथ कभी अर्श तक गया ही नहीं

मैं इस को और ही आलम में ले गया होता
ज़माना उँगली पकड़ कर मिरी चला ही नहीं

हर एक चेहरे पे कितनी इबारतें हैं रक़म
मिरी जबीं पे तो कुछ वक़्त ने लिखा ही नहीं

बला-कशान-ए-मोहब्बत में है शुमार मिरा
ये इंकिशाफ़ तो मुझ पर कभी हुआ ही नहीं

ब-नाम-ए-जाम-ओ-सुबू उस को रोकना चाहा
था वक़्त मुझ से भी चालाक वो रुका ही नहीं

क़ुसूर उस का नहीं है क़ुसूर मेरा है
मैं कम-नसीबी की तह तक कभी गया ही नहीं

इक आस ज़ेहन के कोने में है अभी महफ़ूज़
ये और खिलौना है 'राहत' जो टूटता ही नहीं