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उस शर्म-गीं के मुँह पे न हर दम निगाह रख | शाही शायरी
us sharam-gin ke munh pe na har dam nigah rakh

ग़ज़ल

उस शर्म-गीं के मुँह पे न हर दम निगाह रख

जोशिश अज़ीमाबादी

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उस शर्म-गीं के मुँह पे न हर दम निगाह रख
सर-रिश्ता-ए-निगाह को अपने निगाह रख

किस लुत्फ़ से है आइना देख उस के रू-ब-रू
गर्दूं न दिल में आरज़ू-ए-महर-ओ-माह रख

दीवाने चाहता है अगर वस्ल-ए-यार हो
तेरा बड़ा रक़ीब है दिल इस से राह रख

दिलदार हो तू या कि दिल-आज़ार तेरा शौक़
दिल दे चुका मैं ख़्वाह न रख इस को ख़्वाह रख

दावा-ए-क़त्ल कर तुझे मंज़ूर है जो दिल
दामान ओ तेग़-ए-यार ही को तू गवाह रख

मैं चाहता हूँ तुझ को तू चाहे है ग़ैर को
ये क्या ग़ज़ब है चाहने वाले की चाह रख

'जोशिश' जुदा है यार से तू जानता हूँ मैं
इतना भी इज़्तिराब ख़ुदा पर निगाह रख