उस रस्ते पर जाते देखा कोई नहीं है
घर है इक और उस में रहता कोई नहीं है
कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते
यूँ लगता है आगे रस्ता कोई नहीं है
एक सहेली बाग़ में बैठी रोती जाए
कहती जाए साथी मेरा कोई नहीं है
मेहर-ओ-वफ़ा क़ुर्बानी क़िस्सों की हैं बातें
सच्ची बात तो ये है ऐसा कोई नहीं है
देख के तुम को इक उलझन में पड़ जाती हूँ
मैं कहती थी इतना अच्छा कोई नहीं है
उस की वफ़ादारी मश्कूक ठहर जाती है
कार-ए-वफ़ा में दुश्मन जिस का कोई नहीं है
ग़ज़ल
उस रस्ते पर जाते देखा कोई नहीं है
साइमा इसमा