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उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे | शाही शायरी
us manzar-e-sada mein kai jal bandhe the

ग़ज़ल

उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे

अहमद फ़राज़

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उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे
जब उस का गरेबान खुला बाल बंधे थे

ऐ ज़ूद-फ़रामोश कहाँ तू है कि तुझ से
मेरे तो शब-ओ-रोज़ मह-ओ-साल बंधे थे

वो रश्क-ए-ग़ज़ालाँ था मगर दाम में उस के
हम जैसे कई सैद-ए-ज़बूँ-हाल बंधे थे

देखे कोई नासेह की जो हालत है कि हम तो
उस बुत की मोहब्बत में बहर-हाल बंधे थे

सय्याद को फिर भी मिरी परवाज़ का डर था
मैं गरचे क़फ़स में था पर-ओ-बाल बंधे थे

यूँ दिल तह-ओ-बाला कभी होते नहीं देखे
इक शख़्स के पाँव से तो भौंचाल बंधे थे

वक़्त आया तो मैं मक़्तल-ए-जाँ में था अकेला
यारों की गिरह में फ़क़त अक़वाल बंधे थे