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उस की दीवार पे मनक़ूश है वो हर्फ़-ए-वफ़ा | शाही शायरी
uski diwar pe manqush hai wo harf-e-wafa

ग़ज़ल

उस की दीवार पे मनक़ूश है वो हर्फ़-ए-वफ़ा

फ़सीह अकमल

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उस की दीवार पे मनक़ूश है वो हर्फ़-ए-वफ़ा
जिस की ताबीर को ख़्वाबों का सहारा न मिला

मेरी तन्हाई से उकता के तिरा नाम भी कल
अपने मुस्तक़बिल-ए-ताबाँ की तरफ़ लौट गया

जब ख़यालात मिरा साथ नहीं देते हैं
दिल में दर आती है चुपके से वो मानूस सदा

ऐसे ख़ुश-रंग सराबों का सहारा कब तक
मुस्कुराता हूँ तो देती है तमन्ना ये सदा

मैं ने चाहा था नई सुब्ह का सूरज बन जाऊँ
दूर तक दामन-ए-शब और भी कुछ फैल गया

फिर ख़ुदाई में है क्यूँ घोर अंधेरों को सबात
हम चलो मान गए एक तजल्ली है ख़ुदा

शे'र कहता हूँ तो 'अकमल' मिरा दिल कहता है
फ़िक्र-ए-आवारा पे अल्फ़ाज़ की चादर न चढ़ा