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उस के लिए आँखें दर-ए-बे-ख़्वाब में रख दूँ | शाही शायरी
uske liye aanhken dar-e-be-KHwab mein rakh dun

ग़ज़ल

उस के लिए आँखें दर-ए-बे-ख़्वाब में रख दूँ

जावेद शाहीन

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उस के लिए आँखें दर-ए-बे-ख़्वाब में रख दूँ
फिर शब को जला कर उन्हें मेहराब में रख दूँ

सूरत है यही अब तो गुज़रना है यूँही वक़्त
जिस बात को दिल चाहे उसे ख़्वाब में रख दूँ

फिरते हैं सदा जिस में समुंदर भी ज़मीं भी
ये पूरा फ़लक भी उसी गिर्दाब में रख दूँ

ये सारे सितारे किसी दरिया में बहा दूँ
बस चाँद पकड़ कर किसी तालाब में रख दूँ

कपड़े जो मुझे तंग हों पहना दूँ ख़ला को
और ख़्वाब पुराने कहीं महताब में रख दूँ

इतना भी न आसाँ हो यहाँ प्यास बुझाना
बहता हुआ धोका सा कहीं आब में रख दूँ

सब कुछ ही गँवा देने से बेहतर है कि 'शाहीं'
ख़ाशाक-ए-दिल-ओ-जाँ रह-ए-सैलाब में रख दूँ