उस जंगल से जब गुज़रोगे तो एक शिवाला आएगा
वहाँ रुक जाना वहाँ रह जाना वहाँ सुख का उजाला आएगा
ये सोच के उठना हर दिन तुम इस दिल का फूल खिलेगा ज़रूर
इस आस पे सोना अब की शब कोई ख़्वाब निराला आएगा
जब उस के हाथ नया माज़ी इस सफ़्हा-ए-अर्ज़ पे लिक्खेंगे
जब सहर ओ शाम रक़म होंगे तब मेरा हवाला आएगा
इस बे-अंदेशा सहरा में इस ऊँघने वाली उम्मत पर
कब जागने वाला उतरेगा कब सोचने वाला आएगा
फिर रूहें ज़ख़्मी ज़ख़्मी हैं फिर कोढ़ से दुखने आए बदन
यूँ लगता है कि शफ़ाअत को फिर कोई ग्वाला आएगा
ऐ राह-ए-सुख़न के राह-रवो दिल-शाद रहो इस राह में भी
ख़ुश्बू की सवारी ठहरेगी रंगों का पियाला आएगा

ग़ज़ल
उस जंगल से जब गुज़रोगे तो एक शिवाला आएगा
साबिर वसीम