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उस गर्मी-ए-बाज़ार से बढ़ कर नहीं कुछ भी | शाही शायरी
us garmi-e-bazar se baDh kar nahin kuchh bhi

ग़ज़ल

उस गर्मी-ए-बाज़ार से बढ़ कर नहीं कुछ भी

परतव रोहिला

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उस गर्मी-ए-बाज़ार से बढ़ कर नहीं कुछ भी
सच जानिए दुक्कान के अंदर नहीं कुछ भी

हम जोहद-ए-मुसलसल से जहाँ टूट के गिर जाएँ
वो लम्हा हक़ीक़त है मुक़द्दर नहीं कुछ भी

मजबूर तजस्सुस ने किया है हमें वर्ना
इस क़ैद की दीवार के बाहर नहीं कुछ भी

ये मेरी तमन्ना है कि जुम्बिश में हैं पर्दे
इक ख़्वाहिश-ए-पैहम है पस-ए-दर नहीं कुछ भी

अफ़्कार की अक़्लीम विरासत है हमारी
और इस के सिवा हम को मयस्सर नहीं कुछ भी

दरवेश भी होते हुए हम ऐसे ग़नी हैं
दाराई-ए-दुनिया-ए-सिकंदर नहीं कुछ भी

जिस तख़्त-ए-ग़िना पर मुतमक्किन हूँ मैं 'परतव'
उस दौलत-ए-बेहद के बराबर नहीं कुछ भी