उस बुत से मिल कर इस दिल-ए-नादाँ को क्या हुआ
क्यूँ आह-ओ-ज़ारी है लब-ए-ख़ंदाँ को क्या हुआ
दीवाने अपना चाक-ए-गरेबाँ तो सी चुके
अब तक न आई फ़स्ल-ए-बहाराँ को क्या हुआ
दोनों-जहाँ हैं मुंतज़िर-ए-रोज़-ए-हश्र फिर
उस शोख़ चश्म-ए--फ़ितना-ए-दौराँ को क्या हुआ
फूलों में कोई बू है न कलियों में ताज़गी
ऐ अंदलीब रंग-ए-गुलिस्ताँ को क्या हुआ
दिल में वही ख़लिश है वही इज़्तिराब है
चारागरों के दा'वा-ए-दरमाँ को क्या हुआ
दिल पूछता है आज भी वो रश्क-ए-नौ-बहार
आया न उस के वा'दा-ओ-पैमाँ को क्या हुआ
करते हो आज कुफ़्र की बातें जगह जगह
'आफ़त' तुम्हारे दीन को ईमाँ को क्या हुआ

ग़ज़ल
उस बुत से मिल कर इस दिल-ए-नादाँ को क्या हुआ
ललन चौधरी