उम्र काटी बुतों की आड़ों में
बन के पत्थर रहा पहाड़ों में
वो लड़ाई में बोल उठे मुझ से
बात अच्छी बनी बिगाड़ों में
दर्द-ए-सर के इलाज को वहशत
खींच कर ले चली पहाड़ों में
मस्तियाँ और बहार का मौसम
मय की लज़्ज़त गुलाबी जाड़ों में
दुख़्तर-ए-रज़ की शर्म तो देखो
छुप गई जा के ख़ुम की आड़ों में
तू ने पी ही नहीं है ऐ ज़ाहिद
मय की गर्मी न पूछ जाड़ों में
तेरे गेसू भी हो गए शामिल
मेरी तक़दीर के बिगाड़ों में
मर्ग-ए-दुश्मन पे मौत रोती है
ये असर है तिरी पछाड़ों में
उठते जोबन पे खुल पड़े गेसू
आ के जोगी बसे पहाड़ों में
वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में
इश्क़ में जान पर बनी 'मुज़्तर'
ज़िंदगी कट गई बिगाड़ों में
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ग़ज़ल
उम्र काटी बुतों की आड़ों में
मुज़्तर ख़ैराबादी