उम्मीद है कि मुझ को ख़ुदा आदमी करे
पर आदमी करे तो भला आदमी करे
इस तरह वो फ़रेब से दिल ले गए मिरा
जिस तरह आदमी से दग़ा आदमी करे
भातीं नहीं कुछ उस के निकलती है अपनी जान
क्या ऐसे बेवफ़ा से वफ़ा आदमी करे
मारा है कोहकन ने सर अपने पे तेशा आह
दिल को लगी हो चोट तो क्या आदमी करे
गर कुछ कहा बिगड़ के मैं बस उस ने हँस दिया
क्या ऐसे आदमी का गिला आदमी करे
गुज़रा मैं ऐसी चाह से ता-चंद हम-नशीं
बैठा किसी के सर को लगा आदमी करे
है इश्क़ बद-मरज़ कोई जाता है 'मुंतज़िर'
क्या ख़ाक इस मरज़ की दवा आदमी करे

ग़ज़ल
उम्मीद है कि मुझ को ख़ुदा आदमी करे
मियाँ नूर उल इस्लाम मुंतज़िर