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उल्फ़त से हो ख़ाक हम को लहना | शाही शायरी
ulfat se ho KHak hum ko lahna

ग़ज़ल

उल्फ़त से हो ख़ाक हम को लहना

जुरअत क़लंदर बख़्श

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उल्फ़त से हो ख़ाक हम को लहना
क़िस्मत में तो है अज़ाब सहना

ध्यान उस के में हम को सर-ब-ज़ानू
आँखें किए बंद बैठे रहना

मुँह चाहिए चाहने को यूँ जी
क्या तुम ने कहा ये फिर तो कहना

अल्लाह-रे सादगी का आलम
दरकार नहीं कुछ उस को गहना

कर बंद न अश्क-ए-चश्म-ए-तर को
बेहतर नासूर का है बहना

क़ाएम रहे क्या इमारत-ए-दिल
बुनियाद में तो पड़ा है ढहना

शब घर जो रहा मिरे वो मेहमाँ
था सुब्ह ये किस अदा से कहना

ताक़त न रही बदन में हे हे
क़ुर्बान किया था याँ का रहना

दिल ने भी दिया न साथ 'जुरअत'
क्या दोश किसी को दीजे लहना