उजाला छिन रहा है रौशनी तक़्सीम होती है
तिरी आवाज़ है या ज़िंदगी तक़्सीम होती है
कभी रेग-ए-रवाँ से प्यास बुझ जाती है रहरव की
कभी दरिया के हाथों तिश्नगी तक़्सीम होती है
यही वो मोड़ है अपने पराए छूट जाते हैं
क़रीब-ए-कू-ए-जानाँ गुमरही तक़्सीम होती है
ख़ुशी के नाम पर आँखों में आँसू आ ही जाते हैं
ब-क़द्र-ए-ग़म मोहब्बत में ख़ुशी तक़्सीम होती है
यक़ीं आया तिरे शादाब पैकर की खनक सुन कर
बदन के ज़ावियों में यूँ हँसी तक़्सीम होती है
क़यामत है दिलों के दरमियाँ दीवार उठाते हो
दिलों के दर्द की हमसायगी तक़्सीम होती है
वहीं कल वक़्त ने खाई थी ठोकर याद है अब तक
वो पेच-ओ-ख़म जहाँ तेरी गली तक़्सीम होती है
सर-ए-पहना-ए-नग़्मा 'शाज़' कुछ शो'ला सा उठता है
सुना है दौलत-ए-पैग़म्बरी तक़्सीम होती है

ग़ज़ल
उजाला छिन रहा है रौशनी तक़्सीम होती है
शाज़ तमकनत