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तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं | शाही शायरी
tu na ho ham-nafas agar jine ka lutf hi nahin

ग़ज़ल

तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं

हादी मछलीशहरी

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तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं
जिस में न तू शरीक हो मौत है ज़िंदगी नहीं

इशरत-ए-दीद है यही अपना भी कुछ रहे न होश
जल्वा ब-क़ैद-ए-ताब-ए-दीद अस्ल में जल्वा ही नहीं

अव्वल-ए-इश्क़ ही में क्या दिल का मआल देखना
ये तो है इब्तिदा-ए-सोज़ आग अभी लगी नहीं

इश्क़ है कैफ़-ए-बे-ख़ुदी इस को ख़ुदी से क्या ग़रज़
जिस की फ़ज़ा हो वस्ल ओ हिज्र इश्क़ वो इश्क़ ही नहीं

ये भी न हो ख़बर कि सर सज्दे में है झुका हुआ
जिस में हो बंदगी का होश वो कोई बंदगी नहीं

किस का सर-ए-नियाज़ था पा-ए-अयाज़ पर झुका
माना-ए-बंदगी-ए-शौक़ सतवत-ए-ख़ुसरवी नहीं

कर न सुकून-ए-दिल का ग़म हादी-ए-मुब्तला ज़रा
इश्क़ की बारगाह में दर्द की कुछ कमी नहीं