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तू न आएगा मुझे जब से यक़ीं आ गया है | शाही शायरी
tu na aaega mujhe jab se yaqin aa gaya hai

ग़ज़ल

तू न आएगा मुझे जब से यक़ीं आ गया है

नबील अहमद नबील

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तू न आएगा मुझे जब से यक़ीं आ गया है
आसमाँ जैसे मिरा ज़ेर-ए-ज़मीं आ गया है

जिस के मिलने को मसाफ़त थी कई बरसों की
एक ही पल में वो हम-ज़ाद यहीं आ गया है

निखरा निखरा सा है हर शेर ग़ज़ल का मेरी
सोच में जब से तसव्वुर वो हसीं आ गया है

हर तरफ़ तंज़ के नश्तर हैं हमारी जानिब
किस के हाथों में मिरा दीन-ए-मुबीं आ गया है

आ गया काम मिरे रोज़ का रोना धोना
जो न आता था कभी मेरे क़रीं आ गया है

गर्दिश-ए-वक़्त टली एक ही लम्हे को यूँही
रुख़ पे ज़ुल्फ़ों को बिखेरे वो हसीं आ गया है

सेहन-ए-गुलशन में सरासीमगी कैसी है 'नबील'
अहल-ए-गुलशन में कोई दश्त-नशीं आ गया है