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तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को | शाही शायरी
tu kahan hai tujhse ek nisbat thi meri zat ko

ग़ज़ल

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को

शहरयार

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तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को

मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी मैं वाक़िफ़ न था
बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को

कैसी बस्ती थी जहाँ पर कोई भी ऐसा न था
मुन्कशिफ़ मैं जिस पे करता अपने दिल की बात को

सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं
तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को