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तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर | शाही शायरी
tu jism hai to mujhse lipaT kar kalam kar

ग़ज़ल

तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर

अनवर सदीद

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तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
ख़ुशबू है गर तो दिल में सिमट कर कलाम कर

मैं अजनबी नहीं हूँ मुझे रौंद कर न जा
नज़रें मिला के देख पलट कर कलाम कर

बाला-ए-बाम आने का गर हौसला नहीं
पलकों की चिलमनों में सिमट कर कलाम कर

क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग मयस्सर नहीं तो फिर
दरिया की मौज मौज में बट कर कलाम कर

जन्नत में या तो मुझ को पुराना मक़ाम दे
या आ मिरी ज़मीं में पलट कर कलाम कर

अनवर 'सदीद' आम सा बंदा है उस के साथ
मिट्टी पे बैठ गर्द में अट कर कलाम कर