तू अपने पिंदार की ख़बर ले कि रुख़ हवा का बदल रहा है
तिरी नज़र से बहकने वाला फ़रेब खा कर सँभल रहा है
यही है दस्तूर-ए-शहर-ए-हस्ती कि जो नया है वही पुराना
हयात अंगड़ाई ले रही है ज़माना करवट बदल रहा है
रह-ए-तलब में जुनूँ ने अक्सर शुऊर को आईना दिखाया
जिसे था उज़्र-ए-शिकस्ता-पाई वो अब सितारों पे चल रहा है
हमें ये ताने न दो कि हम ने ज़माना-साज़ी के गुर न सीखे
कि रफ़्ता रफ़्ता मिज़ाज-ए-दुनिया हमारे साँचे में ढल रहा है
तिरी अदाओं की सादगी में किसी को महसूस भी न होगा
अभी क़यामत का इक करिश्मा हया के दामन में पल रहा है
किसी में हिम्मत न थी कि बढ़ कर जुनूँ की ज़ंजीर थाम लेता
ख़िरद की बस्ती में है अँधेरा चराग़ सहरा में जल रहा है
हज़ार शेवे थे गुफ़्तुगू के हज़ार अंदाज़ थे सुख़न के
मगर ब-ईमा-ए-दिल 'फ़रीदी' फ़िदा-ए-रंग-ए-ग़ज़ल रहा है
ग़ज़ल
तू अपने पिंदार की ख़बर ले कि रुख़ हवा का बदल रहा है
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी