तू अगर दिल-नवाज़ हो जाए
सोज़ हम-रंग-ए-साज़ हो जाए
दिल जो आगाह-ए-राज़ हो जाए
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
लज़्ज़त-ए-ग़म का ये तक़ाज़ा है
मुद्दत-ए-ग़म दराज़ हो जाए
नग़्मा-ए-इश्क़ छेड़ता हूँ मैं
ज़िंदगी नै-नवाज़ हो जाए
उस की बिगड़ी बने न क्यूँ ऐ इश्क़
जिस का तू कारसाज़ हो जाए
हुस्न मग़रूर है मगर तौबा
इश्क़ अगर बे-नियाज़ हो जाए
दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'
दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए
ग़ज़ल
तू अगर दिल-नवाज़ हो जाए
अलीम अख़्तर