तुम्हें बताऊँ कि किस मश्ग़ले से आई है
मिरी नज़र में चमक रतजगे से आई है
ख़याल जैसे ही आया ज़रा सा दम ले लूँ
तो इक सदा-ए-जरस क़ाफ़िले से आई है
चमक रही है जबीं नक़्श-ए-पा की बरकत से
वो बिल-यक़ीं तिरे रास्ते से आई है
ये क्या अजब है कि मुझ को ही कुछ नहीं मा'लूम
जो मेरी बात तिरे वास्ते से आई है
तुम अपने जिस्म की ख़ुश्बू सँभाल कर रखना
ये बहकी बहकी सदा आइने से आई है
बस इतनी ज़िद थी मुसल्ला बिछा के पीना है
पलट के मेरी अना मय-कदे से आई है
जिसे भुलाए ज़माना गुज़र चुका था 'सबा'
उसी की याद बड़े वलवले से आई है

ग़ज़ल
तुम्हें बताऊँ कि किस मश्ग़ले से आई है
कामरान ग़नी सबा