तुम्हारे शहर में इतने मकाँ गिरे कैसे 
मिरे अज़ीज़ ठिकाने धुआँ हुए कैसे 
मैं शहर-ए-जब्र से गुज़रा तो सुरख़-रू हो कर 
उन्हें ये फ़िक्र लहू का निशाँ मिटे कैसे 
सुना रहा हूँ कहानी हज़ार रातों की 
कि शाहज़ादे के सर से सिनाँ हटे कैसे 
हिसाब ख़ूब रखा तुम ने अपनी लागत का 
मिरे निसाब में सूद-ओ-ज़ियाँ चले कैसे 
हर एक शख़्स तुम्हारी तरह नहीं होता 
कोई किसी से मोहब्बत कहाँ करे कैसे 
जहाँ भी शाम हुई घर बना लिया अपना 
मकाँ बहुत थे मगर बे-मकाँ रहे कैसे 
'अनीस' तुम तो बहुत तेज़ चाल चलते थे 
ज़रा हमें भी बताओ मियाँ गिरे कैसे
        ग़ज़ल
तुम्हारे शहर में इतने मकाँ गिरे कैसे
अनीस अंसारी

