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तुम्हारे इश्क़ में किस किस तरह ख़राब हुए | शाही शायरी
tumhaare ishq mein kis kis tarah KHarab hue

ग़ज़ल

तुम्हारे इश्क़ में किस किस तरह ख़राब हुए

हैदर क़ुरैशी

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तुम्हारे इश्क़ में किस किस तरह ख़राब हुए
रहा न आलम-ए-हिज्राँ न वस्ल-याब हुए

बस इतनी बात थी दो दिन कभी न मिल पाएँ
कहीं पे तपते हुए थल कहीं चनाब हुए

अजब सज़ा है कि मेरे दुआओं वाले हुरूफ़
न मुस्तरद हुए अब तक न मुस्तजाब हुए

ज़िहानतें थीं तिरी या अनाड़ी-पन अपना
सवाल वस्ल से पहले ही ला-जवाब हुए

हक़ीक़त इतनी है उस के मिरे तअल्लुक़ की
किसी के दुख थे मिरे नाम इंतिसाब हुए

जिसे समझते थे सहरा वो इक समुंदर था
खिला वो शख़्स तो हम कैसे आब आब हुए

न आया ढंग हमें कोई इश्क़ का 'हैदर'
न दिल के ज़ख़्मों के हम से कभी हिसाब हुए