तुम ये समझ रहे थे निशाने पे आ गया
मैं घूम-फिर के अपने ठिकाने पे आ गया
दरबान से उलझने का ये फ़ाएदा हुआ
बाहर वो मेरे शोर मचाने पे आ गया
तारीफ़ उस के काम की महँगी पड़ी मुझे
वो शख़्स अपने दाम बढ़ाने पे आ गया
तस्वीर उस की घर में लगाने की देर थी
मालिक-मकान मुझ को उठाने पे आ गया
फिर यूँ हुआ कि प्यास ही 'महबूब' मर गई
जिस वक़्त मैं कुएँ के दहाने पे आ गया

ग़ज़ल
तुम ये समझ रहे थे निशाने पे आ गया
ख़ालिद महबूब