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तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर | शाही शायरी
tum na ghabrao mere zaKHm-e-jigar ko dekh kar

ग़ज़ल

तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर

सुदर्शन फ़ाख़िर

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तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर
मैं न मर जाऊँ तुम्हारी चश्म-ए-तर को देख कर

ज़ख़्म ताज़ा कर रहा हूँ चारागर को देख कर
रास्ता मैं ने बदल डाला ख़िज़र को देख कर

ज़िंदगानी इक फ़रेब-ए-दाइमी है सर-ब-सर
मुझ पे ये ज़ाहिर हुआ शाम-ओ-सहर को देख कर

गरचे उन से कोई उम्मीद-ए-वफ़ा मुझ को नहीं
जी बहल जाता है फिर भी नामा-बर को देख कर

आज इंसाँ से है इंसाँ बरसर-ए-पैकार यूँ
अल-अमाँ शैताँ पढ़े ख़ू-ए-बशर को देख कर

आदमी में आदमियत का निशाँ बाक़ी नहीं
बेच डाला इस ने ईमाँ सीम-ओ-ज़र को देख कर

आसमाँ तक तो हम ऐ 'रिफ़अत' रहे गर्म-ए-ख़िराम
उस से आगे चल न पाए राहबर को देख कर