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तुम मिरे पास रहो जिस्म की गरमी बख़्शो | शाही शायरी
tum mere pas raho jism ki garmi baKHsho

ग़ज़ल

तुम मिरे पास रहो जिस्म की गरमी बख़्शो

सय्यद अहमद शमीम

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तुम मिरे पास रहो जिस्म की गरमी बख़्शो
सर्द है रात बहुत घर से न बाहर निकलो

दूधिया चाँदनी बिस्तर पे कहाँ से आई
फिर कोई चाँद न निकला हो गली में देखो

सर पे कब कौन कहाँ संग-ए-मलामत मारे
पारसाओं से परे कल्बा-ए-अहज़ाँ में रहो

कोई भौंरा न कहीं फूल का रस पी जाए
अपनी मदहोश निगाहों के दरीचे खोलो

जाने किस मंज़िल-ए-बे-नाम की जानिब निकलूँ
अपनी तन्हाई से डरता हूँ मिरे साथ रहो

बर्फ़ इक रोज़ पहाड़ों की पिघल जाएगी
सर्द-मेहरी-ए-ज़माना की शिकायत न करो

कितनी बीती हुई सदियों की कहानी हूँ 'शमीम'
मेरे चेहरे की ये बिगड़ी हुई तहरीर पढ़ो