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तुम को ये है अगर यक़ीं दिल में वो जल्वा-गर नहीं | शाही शायरी
tumko ye hai agar yaqin dil mein wo jalwa-gar nahin

ग़ज़ल

तुम को ये है अगर यक़ीं दिल में वो जल्वा-गर नहीं

बिस्मिल इलाहाबादी

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तुम को ये है अगर यक़ीं दिल में वो जल्वा-गर नहीं
ढूँढा करो तमाम उम्र मिलने का उम्र-भर नहीं

आए न आए बे-ख़बर क्या तुझे ये ख़बर नहीं
साँस का ए'तिबार क्या शाम है तो सहर नहीं

दैर हो का'बा हो कि दिल किस में वो जल्वा-गर नहीं
देख सकूँ मगर उसे इतनी मिरी नज़र नहीं

कुंज-ए-क़फ़स में अंदलीब मुज़्तर-ओ-बेकस-ओ-ग़रीब
कहने को बाल-ओ-पर तो हैं उड़ने को बाल-ओ-पर नहीं

दिल में बला का जोश है सर लिए सरफ़रोश है
जीने का होश है कहाँ मरने का उस को डर नहीं

तोड़ रहा है आज दम ग़म में कोई मरीज़-ए-ग़म
फिर भी हैं आप बे-ख़बर आप को कुछ ख़बर नहीं

जान गए ये मर के हम मुल्क-ए-अदम था दो-क़दम
ख़त्म हो जल्द जो सफ़र ऐसा कोई सफ़र नहीं

पर्दे में आप बैठ कर रखते हैं हर तरफ़ नज़र
और ज़बान पर ये है शोख़ मिरी नज़र नहीं

लब पे है नारा-ए-अलस्त झूम रहा है कोई मस्त
छाई है ऐसी बे-ख़ुदी अपनी उसे ख़बर नहीं

उफ़ ये मिरा नसीब-ए-बद जा के बनी कहाँ लहद
सब की है रहगुज़र जहाँ आप की रहगुज़र नहीं

बात ये तुम ने सच कही 'बिस्मिल' बे-हुनर सही
ये भी है इक बड़ा हुनर इस में कोई हुनर नहीं