तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
गर इस वफ़ा पे कोई कहे बेवफ़ा मुझे
सच है तू बद-गुमाँ है समझता है कुछ का कुछ
बोसा न लेना था तिरे आईने का मुझे
इंसाफ़ कर ख़राब न फिरता मैं दर-ब-दर
मिलती जो तेरे गोशा-ए-ख़ातिर में जा मुझे
उस बुत की मैं दिखाऊँगा तस्वीर वाइज़ो
फिर क्या कहेगा दावर-ए-रोज़-ए-जज़ा मुझे
क्यूँ उन से वक़्त-ए-क़त्ल किया शिकवा ग़ैर का
करनी थी मग़फ़िरत ही की अपनी दुआ मुझे
पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
कह दीजो हाल देख के रहम आ गया मुझे
ग़ज़ल
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
मीर तस्कीन देहलवी