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तुम आ गए हो तो क्यूँ इंतिज़ार-ए-शाम करें | शाही शायरी
tum aa gae ho to kyun intizar-e-sham karen

ग़ज़ल

तुम आ गए हो तो क्यूँ इंतिज़ार-ए-शाम करें

नासिर काज़मी

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तुम आ गए हो तो क्यूँ इंतिज़ार-ए-शाम करें
कहो तो क्यूँ न अभी से कुछ एहतिमाम करें

ख़ुलूस-ओ-मेहर-ओ-वफ़ा लोग कर चुके हैं बहुत
मिरे ख़याल में अब और कोई काम करें

ये ख़ास-ओ-आम की बे-कार गुफ़्तुगू कब तक
क़ुबूल कीजिए जो फ़ैसला अवाम करें

हर आदमी नहीं शाइस्ता-ए-रुमूज़-ए-सुख़न
वो कम-सुख़न हो मुख़ातब तो हम-कलाम करें

जुदा हुए हैं बहुत लोग एक तुम भी सही
अब इतनी बात पे क्या ज़िंदगी हराम करें

ख़ुदा अगर कभी कुछ इख़्तियार दे हम को
तू पहले ख़ाक-नशीनों का इंतिज़ाम करें

रह-ए-तलब में जो गुमनाम मर गए 'नासिर'
मता-ए-दर्द उन्ही साथियों के नाम करें