तुझ को पाने के लिए ख़ाक-ए-तमन्ना हो जाऊँ
तेरे क़दमों में बिखर कर तिरा रस्ता हो जाऊँ
और कब तक मैं करूँ मदह-सराई अपनी
मुझ को तौफ़ीक़ दे या-रब कि मैं तेरा हो जाऊँ
तुझ को कोई भी कभी मेरे सिवा देख न पाए
आँख में भर लूँ तुझे और मैं अंधा हो जाऊँ
चंद लम्हों के लिए ख़ुद को मुकम्मल देखूँ
बे-इरादा ही सही मैं कभी यकजा हो जाऊँ
फ़िक्र-ए-उक़्बा न करूँ तुझ में गिरफ़्तार रहूँ
शायरी तेरे लिए मैं सग-ए-दुनिया हो जाऊँ
ये करिश्मा भी किसी रोज़ तो रौशन हो जाए
तू मिरी आरज़ू में तेरी तमन्ना हो जाऊँ
मैं कि अम्बोह-ए-अज़ीज़ाँ में किसी का भी नहीं
ज़िंदगी मुझ से लिपट जा कि मैं तेरा हो जाऊँ
ये अजब शर्त है तस्लीम-ओ-रज़ा की 'अख़्तर'
ख़ुद को पहचानना चाहूँ तो मैं अंधा हो जाऊँ
ग़ज़ल
तुझ को पाने के लिए ख़ाक-ए-तमन्ना हो जाऊँ
सुल्तान अख़्तर