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तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था | शाही शायरी
titliyan rangon ka mahshar hain kabhi socha na tha

ग़ज़ल

तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था

आरिफ़ अब्दुल मतीन

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तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था
उन को छूने पर खुला वो राज़ जो खुलता न था!

तू वो आईना है जिस को देख कर रौशन हुआ
मैं ने अपने-आप को समझा कहाँ देखा न था!

चाँद बन कर तू मिरे आँगन में उतरा है ज़रूर
नूर इतना बाम-ओ-दर पर आज तक बिखरा न था!

कौन से आलम में मैं ने आज देखा है तुझे
तू धनक बन कर मिरे दिल में कभी उतरा न था!

सख़्त-जानी से मिरा दिल बच गया वर्ना यहाँ
कौन सा पत्थर था इस शीशे पे जो बरसा न था!

इस जहान-ए-रंग-ओ-बू को मैं ने समझा था सराब
इक हक़ीक़त था ये 'आरिफ़' आँख का धोका न था