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तिश्नगी बाक़ी रहे दीवानगी बाक़ी रहे | शाही शायरी
tishnagi baqi rahe diwangi baqi rahe

ग़ज़ल

तिश्नगी बाक़ी रहे दीवानगी बाक़ी रहे

अफ़रोज़ तालिब

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तिश्नगी बाक़ी रहे दीवानगी बाक़ी रहे
रंज-ओ-ग़म है इस लिए ता-कि ख़ुशी बाक़ी रहे

ज़ख़्म अगर भर जाएगा तो भूल जाऊँगा उसे
ये दुआ दो ज़ख़्म-ए-दिल की ताज़गी बाक़ी रहे

क़ुर्बतें भी दूरियों का बन गईं अक्सर सबब
इस लिए बेहतर है उन की बे-रुख़ी बाक़ी रहे

ठहर जाना मौत है और चलते रहना ज़िंदगी
ज़िंदगी बाक़ी रहे आवारगी बाक़ी रहे

रौशनी होगी तो कितने चेहरे होंगे बे-नक़ाब
कह दो ये 'अफ़रोज़' से कि तीरगी बाक़ी रहे