तिश्ना-लबी ने जब भी ज़ौक़-ए-अमल दिया है
रिंदों ने मय-कदे का साक़ी बदल दिया है
दुनिया है इस की शाहिद इस शहर-ए-बे-अमाँ ने
जिस में अना समाई वो सर कुचल दिया है
खिलते रहे हैं जो गुल बाद-ए-ख़िज़ाँ की शह पर
दस्त-ए-सबा ने बढ़ कर उन को मसल दिया है
सब ने सुनी है जिस में अस्र-ए-रवाँ की धड़कन
'मंज़ूर' हम ने ऐसा साज़-ए-ग़ज़ल दिया है

ग़ज़ल
तिश्ना-लबी ने जब भी ज़ौक़-ए-अमल दिया है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद