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तिश्ना-लब कोई जो सर-गश्ता सराबों में रहा | शाही शायरी
tishna-lab koi jo sar-gashta sarabon mein raha

ग़ज़ल

तिश्ना-लब कोई जो सर-गश्ता सराबों में रहा

शरर फ़तेह पुरी

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तिश्ना-लब कोई जो सर-गश्ता सराबों में रहा
बस्ता-ए-वहम-ओ-गुमाँ भागता ख़्वाबों में रहा

दिल की आवारा-मिज़ाजी का गिला क्या कीजे
ख़ाना-बर्बाद रहा ख़ाना-ख़राबों में रहा

एक वो हर्फ़-ए-जुनूँ नक़्श-गर-ए-लौह-ओ-क़लम
एक वो बाब-ए-ख़िरद बंद किताबों में रहा

बे-हिसी वो है कि इस दौर में जीने का मज़ा
न गुनाहों में रहा और न सवाबों में रहा

जम्अ' करता रहा ये सूद-ओ-ज़ियाँ के आदाद
उम्र भर ज़ेहन-ए-बशर उलझा हिसाबों में रहा

अब कोई और ही शय वज्ह-ए-नशात-ए-दिल हो
नश्शा-ओ-कैफ़-ए-शरर अब न शराबों में रहा