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तिरी नज़र के इशारों को दिल-कशी बख़्शी | शाही शायरी
teri nazar ke ishaaron ko dil-kashi baKHshi

ग़ज़ल

तिरी नज़र के इशारों को दिल-कशी बख़्शी

क़ैसर निज़ामी

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तिरी नज़र के इशारों को दिल-कशी बख़्शी
नज़र-नवाज़ नज़ारों को ताज़गी बख़्शी

ख़िज़ाँ की ज़द में ही अब तक तिरा गुलिस्ताँ था
हमीं ने आ के बहारों को ज़िंदगी बख़्शी

चमन को हम ने ही अपने लहू से सींचा है
कली को हम ने ही इक तर्ज़-ए-दिल-कशी बख़्शी

तिरी अदा भी अदा है वो इक क़यामत की
ये और बात है तारों को दिल-कशी बख़्शी

है ज़ोम चाक-ए-गिरेबाँ को अपनी क़िस्मत पर
कि तुम ने क्यूँ न मजाल-ए-रफ़ू-गरी बख़्शी

सुना दो अहल-ए-वफ़ा को ये फ़ल्सफ़ा 'क़ैसर'
जुनूँ ने होश की दुनिया को आगही बख़्शी