तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट
वो बोसा दे कि हो जिस की सदा चट
मुँडा कर ख़त्त-ए-रुख़ उस मह-लक़ा ने
किया है आइने का घर सफ़ा-चट
मुझी को गालियाँ देते रहे वो
मगर लेता रहा बोसे चटा-चट
तुम्हारी ज़ुल्फ़ का बाँधा न छूटा
डसा काले ने जिस को वो मुआ चट
मुसल्लम मुर्ग़-ए-दिल है मेहमान-ए-ग़म
करे जल्द ऐ ख़ुदा वो ये ग़िज़ा चट
'वक़ार' उस गुल को ग़ुंचा ने जो देखा
तो औसाफ़-ए-दहन में बोल उठा चट
ग़ज़ल
तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट
किशन कुमार वक़ार

