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तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट | शाही शायरी
teri ai shah-e-KHuban ho bala chaT

ग़ज़ल

तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट

किशन कुमार वक़ार

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तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट
वो बोसा दे कि हो जिस की सदा चट

मुँडा कर ख़त्त-ए-रुख़ उस मह-लक़ा ने
किया है आइने का घर सफ़ा-चट

मुझी को गालियाँ देते रहे वो
मगर लेता रहा बोसे चटा-चट

तुम्हारी ज़ुल्फ़ का बाँधा न छूटा
डसा काले ने जिस को वो मुआ चट

मुसल्लम मुर्ग़-ए-दिल है मेहमान-ए-ग़म
करे जल्द ऐ ख़ुदा वो ये ग़िज़ा चट

'वक़ार' उस गुल को ग़ुंचा ने जो देखा
तो औसाफ़-ए-दहन में बोल उठा चट