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तिरे नज़दीक आता जा रहा हूँ | शाही शायरी
tere nazdik aata ja raha hun

ग़ज़ल

तिरे नज़दीक आता जा रहा हूँ

सय्यद मोहम्मद असकरी आरिफ़

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तिरे नज़दीक आता जा रहा हूँ
वजूद अपना मिटाता जा रहा हूँ

मुक़द्दर आज़माता जा रहा हूँ
मैं तुझ से दिल लगाता जा रहा हूँ

ज़बानी तीर खाता जा रहा हूँ
मैं फिर भी मुस्कुराता जा रहा हूँ

तुझे पाने की इक ख़्वाहिश में जानाँ
मैं कितने ज़ख़्म खाता जा रहा हूँ

अंधेरों से बहुत डरता हूँ लेकिन
चराग़ों को बुझाता जा रहा हूँ

रखे थे राह में जो दोस्तों ने
मैं सब पत्थर हटाता जा रहा हूँ

लगा कर आग अपने ही मकाँ में
मैं शो'लों को बुझाता जा रहा हूँ

अज़ल की सम्त से चल कर मैं 'आरिफ़'
अबद की सम्त जाता जा रहा हूँ