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तिरे बदन के नए ज़ाविए बनाता हुआ | शाही शायरी
tere badan ke nae zawiye banata hua

ग़ज़ल

तिरे बदन के नए ज़ाविए बनाता हुआ

अशरफ़ सलीम

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तिरे बदन के नए ज़ाविए बनाता हुआ
गुज़र रहा है कोई दाएरे बनाता हुआ

यहाँ सितारे को क्या लेन-देन करना था
जो टूट-फूट गया राब्ते बनाता हुआ

वफ़ा-परस्त नहीं था तो और क्या था वो
जो ज़ख़्म ज़ख़्म हुआ आइने बनाता हुआ

मैं दोस्तों के इक इक इम्तिहाँ से गुज़रा हूँ
बिखर गया हूँ कई रास्ते बनाता हुआ

'सलीम' टूट न जाए कहीं भरम अपना
निकल पड़ा हूँ नए सिलसिले बनाता हुआ