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तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है | शाही शायरी
tera majnun hun sahra ki qasam hai

ग़ज़ल

तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है

वली मोहम्मद वली

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तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
तलब में हूँ तमन्ना की क़सम है

सरापा नाज़ है तू ऐ परी-रू
मुझे तेरे सरापा की क़सम है

दिया हक़ हुस्न-ए-बाला-दस्त तुजकूं
मुझे तुझ सर्व-ए-बाला की क़सम है

किया तुझ ज़ुल्फ़ ने जग कूँ दिवाना
तिरी ज़ुल्फ़ाँ के सौदा की क़सम है

दो-रंगी तर्क कर हर इक से मत मिल
तुझे तुझ क़द्द-ए-राना की क़सम है

किया तुझ इश्क़ ने आलम कूँ मजनूँ
मुझे तुझ रश्क-ए-लैला की क़सम है

'वली' मुश्ताक़ है तेरी निगह का
मुझे तुझ चश्म-ए-शहला की क़सम है