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तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ | शाही शायरी
tilism KHatm chalo aah-e-be-asar ka hua

ग़ज़ल

तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ

शहरयार

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तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ
वो देखो जिस्म बरहना हर इक शजर का हुआ

सुनाऊँ कैसे कि सूरज की ज़द में हैं सब लोग
जो हाल रात को परछाइयों के घर का हुआ

सदा के साए में सन्नाटों को पनाह मिली
अजब कि शहर में चर्चा न इस ख़बर का हुआ

ख़ला की धुँद ही आँखों पे मेहरबान रही
हरीफ़ कोई उफ़ुक़ कब मिरी नज़र का हुआ

मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता
कि इख़्तिताम कहाँ ख़्वाब के सफ़र का हुआ