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तिलिस्म-ख़ाना-ए-दिल में है चार-सू रौशन | शाही शायरी
tilism-KHana-e-dil mein hai chaar-su raushan

ग़ज़ल

तिलिस्म-ख़ाना-ए-दिल में है चार-सू रौशन

सुल्तान अख़्तर

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तिलिस्म-ख़ाना-ए-दिल में है चार-सू रौशन
मिरी निगाह के ज़ुल्मत-कदे में तू रौशन

बहुत दिनों पे हुई है रग-ए-गुलू रौशन
सिनाँ की नोक पे हो जाए फिर लहू रौशन

तमाम रात मैं ज़ुल्मात-ए-इंतिज़ार में था
तमाम रात था महताब-ए-आरज़ू रौशन

मैं अपने आप से ही जंग करता रहता हूँ
कि मुझ पे होता नहीं अब मिरा उदू रौशन

अजीब शोर मुनव्वर दिल ओ दिमाग़ में है
मिरे लहू में है लेकिन सदा-ए-हू रौशन

सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ
तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन

बहार आई तो आँखों में ख़ाक उड़ने लगी
न कोई फूल खिला और न रंग ओ बू रौशन

मैं तीरगी के समुंदर में डूब जाता हूँ
वो जब भी होता है अब मेरे रू-ब-रू रौशन

ये और बात कि 'अख़्तर' हवेलियाँ न रहीं
खंडर में कम तो नहीं अपनी आबरू रौशन