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तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ | शाही शायरी
tilism-e-kar-e-jahan ka asar tamam hua

ग़ज़ल

तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ

सुल्तान अख़्तर

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तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ
कि ख़ाक बैठ गई अब सफ़र तमाम हुआ

बस इक सुकूत बिखरता हुआ है चारों तरफ़
हर एक मार्का-ए-ख़ैर-ओ-शर तमाम हुआ

कहीं सकूँ न मिला इश्क़ से फ़रार के बाद
किसी तरह न मिरा दर्द-ए-सर तमाम हुआ

घरों में ढलती हुई रात थक के बैठ गई
कि अब फ़साना-ए-दीवार-ओ-दर तमाम हुआ

सब अपनी अपनी ख़बर ले रहे हैं वक़्त-ए-ज़वाल
दिलों से बे-ख़बरी का असर तमाम हुआ

फिर उस के रू-ब-रू हम दिल की बात कह न सके
हमारा हौसला बार-ए-दिगर तमाम हुआ

हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है
हर एक क़िस्सा तिरे नाम पर तमाम हुआ

न कोई बात मुकम्मल हुई मिरी 'अख़्तर'
न कोई काम मिरा सर-ब-सर तमाम हुआ