तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ
कि ख़ाक बैठ गई अब सफ़र तमाम हुआ
बस इक सुकूत बिखरता हुआ है चारों तरफ़
हर एक मार्का-ए-ख़ैर-ओ-शर तमाम हुआ
कहीं सकूँ न मिला इश्क़ से फ़रार के बाद
किसी तरह न मिरा दर्द-ए-सर तमाम हुआ
घरों में ढलती हुई रात थक के बैठ गई
कि अब फ़साना-ए-दीवार-ओ-दर तमाम हुआ
सब अपनी अपनी ख़बर ले रहे हैं वक़्त-ए-ज़वाल
दिलों से बे-ख़बरी का असर तमाम हुआ
फिर उस के रू-ब-रू हम दिल की बात कह न सके
हमारा हौसला बार-ए-दिगर तमाम हुआ
हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है
हर एक क़िस्सा तिरे नाम पर तमाम हुआ
न कोई बात मुकम्मल हुई मिरी 'अख़्तर'
न कोई काम मिरा सर-ब-सर तमाम हुआ
ग़ज़ल
तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ
सुल्तान अख़्तर