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ठोकरों की शय परस्तिश की नज़र तक ले गए | शाही शायरी
Thokaron ki shai parastish ki nazar tak le gae

ग़ज़ल

ठोकरों की शय परस्तिश की नज़र तक ले गए

रौनक़ रज़ा

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ठोकरों की शय परस्तिश की नज़र तक ले गए
हम तिरे कूचे के इक पत्थर को घर तक ले गए

छोड़ कर जाते रहे सब कारवाँ वाले मगर
रास्ते ही हम-सफ़र निकले जो घर तक ले गए

अपने ही मक़्तूल ठहरे अपने ही क़ातिल बने
अपने ही हाथों से हम कश्ती भँवर तक ले गए

शाम ही तक था सुकूत-ए-क़ब्ल-ए-तूफ़ाँ फिर न पूछ
कैसे कैसे हम चराग़-ए-शब सहर तक ले गए

टूटता कब तक न आख़िर ऐसे ताइर का ग़ुरूर
नोच कर सय्याद जिस के बाल-ओ-पर तक ले गए