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थोड़ी सी शोहरत भी मिली है थोड़ी सी बदनामी भी | शाही शायरी
thoDi si shohrat bhi mili hai thoDi si badnami bhi

ग़ज़ल

थोड़ी सी शोहरत भी मिली है थोड़ी सी बदनामी भी

क़ैशर शमीम

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थोड़ी सी शोहरत भी मिली है थोड़ी सी बदनामी भी
मेरी सीरत में ऐ 'क़ैसर' ख़ूबी भी है ख़ामी भी

कितने आशिक़ सँभल गए हैं मेरा फ़साना सुन सुन कर
मेरे हक़ में जैसी भी हो काम की है नाकामी भी

महफ़िल महफ़िल ज़िक्र हमारा सोच समझ के कर वाइज़
अपने मुख़ालिफ़ भी हैं कितने और हैं कितने हामी भी

ऐसा तो मुमकिन ही नहीं है चाँद में कोई दाग़ न हो
जिस में होगी कुछ भी ख़ूबी उस में होगी ख़ामी भी

मेरा मज़हब इश्क़ का मज़हब जिस में कोई तफ़रीक़ नहीं
मेरे हल्क़े में आते हैं 'तुलसी' भी और 'जामी' भी

यूँ तो सुकूँ के लम्हे 'क़ैसर' होते हैं अनमोल बहुत
लेकिन अपने काम आती है दिल की बे-आरामी भी