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थोड़ी देर को हम जो कहीं रुक जाते तो ये मुमकिन था | शाही शायरी
thoDi der ko hum jo kahin ruk jate to ye mumkin tha

ग़ज़ल

थोड़ी देर को हम जो कहीं रुक जाते तो ये मुमकिन था

मनमोहन तल्ख़

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थोड़ी देर को हम जो कहीं रुक जाते तो ये मुमकिन था
मिल ही जाता वो जो अपने इलाक़े का इक साकिन था

कुछ भी याद नहीं अब पड़ता कब परदेस को निकले थे
शायद शाम लगी थी ढलने या शायद चढ़ता दिन था

हम ने जतन तो लाख किए थे वक़्त ने ऐसी करवट ली
अपनी जड़ों से हम जुड़ पाते एक यही ना-मुम्किन था

वो इक सानेहा हम न जिसे कह पाए अब तक गुज़रा जब
कैसे कैसे दिल से चाहा था कि न सच हो लेकिन था

'तल्ख़' नहीं था सहल ये लहजा जीवन भर की तपस्या है
हर जज़्बे के हम ज़ामिन थे दर्द हमारा ज़ामिन था