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थी हम-आग़ोशी मगर कुछ भी मुझे हासिल न था | शाही शायरी
thi ham-aghoshi magar kuchh bhi mujhe hasil na tha

ग़ज़ल

थी हम-आग़ोशी मगर कुछ भी मुझे हासिल न था

क़तील शिफ़ाई

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थी हम-आग़ोशी मगर कुछ भी मुझे हासिल न था
वो इक ऐसा लम्स था जिस में बदन शामिल न था

रेत की दलदल मिली मुझ को समुंदर पार भी
मैं वहाँ उतरा जहाँ साहिल कभी साहिल न था

वो तो इक साज़िश थी मेरे ख़ून की मेरे ख़िलाफ़
जिस के सर इल्ज़ाम आया वो मिरा क़ातिल न था

हम ने काटे पेड़ तो सायों की याद आने लगी
लेकिन अब हर्फ़-ए-नदामत से भी कुछ हासिल न था

सर पे आ गिरता है तकमील-ए-मोहब्बत का पहाड़
वर्ना इज़हार-ए-तमन्ना तो कोई मुश्किल न था

पर लगा कर उड़ गए आख़िर मिरी नींदों के साथ
प्यार के वो ख़्वाब जिन का कोई मुस्तक़बिल न था

उन से मिल कर ये भी देखी शो'बदा-बाज़ी 'क़तील'
धड़कनें मौजूद थीं सीने में लेकिन दिल न था