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थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई | शाही शायरी
thake huon ko jo manzil kaThin ziyaada hui

ग़ज़ल

थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई

नसीम सहर

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थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई
सफ़र का अज़्म-ए-मुसम्मम लगन ज़ियादा हुई

उदास पेड़ों ने पत्तों की भेंट दे दी है
ख़िज़ाँ में रौनक़-ए-सहन-ए-चमन ज़ियादा हुई

ज़बाँ पे हब्स की ख़्वाहिश मचल मचल उठी
हवा चली तो घरों में घुटन ज़ियादा हुई

सफ़र का मरहला-ए-सख़्त ही ग़नीमत था
ठहर गए तो बदन की थकन ज़ियादा हुई

कभी तो सर्द लगा दोपहर का सूरज भी
कभी बदन के लिए इक करन ज़ियादा हुई

उरूस-ए-ज़ीस्त पे यूँ भी निखार क्या कम था
लहू लिबास किया तो फबन ज़ियादा हुई

तलब के होंटों पे आसूदगी का लफ़्ज़ कहाँ?
तलब वसीला-ए-दार-ओ-रसन ज़ियादा हुई

'नसीम' किस को था तहज़ीब-ए-फ़न का ध्यान यहाँ
हमारे अहद में तश्हीर-ए-फ़न ज़ियादा हुई