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ठहरे भी नहीं हैं कहीं चलते भी नहीं हैं | शाही शायरी
Thahre bhi nahin hain kahin chalte bhi nahin hain

ग़ज़ल

ठहरे भी नहीं हैं कहीं चलते भी नहीं हैं

सचिन शालिनी

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ठहरे भी नहीं हैं कहीं चलते भी नहीं हैं
हम जिस्म की सरहद से निकलते भी नहीं हैं

ख़ुद से मिलेंगे सोच के घर से हैं निकलते
लेकिन कमाल ये है कि मिलते भी नहीं हैं

पलकों के किनारों पे हैं बेचैन से आँसू
गिरते भी नहीं और सँभलते भी नहीं हैं

आँखों की ये साज़िश है या नींदों की बग़ावत
बच्चों की तरह ख़्वाब जो पलते भी नहीं हैं

इक रंग ही इस ज़ीस्त को काफ़ी है 'सचिन' बस
मौसम की तरह रंग बदलते भी नहीं हैं