EN اردو
तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं | शाही शायरी
tere aafat-zada jin dashton mein aD jate hain

ग़ज़ल

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

;

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं

इतने बिगड़े हैं वो मुझ से कि अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं

क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर कि करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं