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तेरा ख़ुलूस-ए-दिल तो महल्ल-ए-नज़र नहीं | शाही शायरी
tera KHulus-e-dil to mahall-e-nazar nahin

ग़ज़ल

तेरा ख़ुलूस-ए-दिल तो महल्ल-ए-नज़र नहीं

गोपाल मित्तल

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तेरा ख़ुलूस-ए-दिल तो महल्ल-ए-नज़र नहीं
पर कुछ तो है जो तेरी ज़बाँ में असर नहीं

अब वो नहीं है जल्वा-ए-शाम-ओ-सहर का रंग
तेरा जमाल शामिल-ए-हुस्न-ए-नज़र नहीं

है मरकज़-ए-निगाह अभी तक वो आस्ताँ
ये और बात है कि मजाल-ए-सफ़र नहीं

उड़ भी चलें तो अब वो बहार-ए-चमन कहाँ
हाँ हाँ नहीं मुझे हवस-ए-बाल-ओ-पर नहीं

तर्क-ए-तअल्लुक़ात ख़ुद अपना क़ुसूर था
अब क्या गिला कि उन को हमारी ख़बर नहीं

चुप चाप सह रहे हैं कि अपनों का जौर है
अब ख़ूब जानते हैं फ़ुग़ाँ कारगर नहीं

कुछ है तो अपनी ज़ूद-यक़ीनी से है गिला
तुझ से तो अब कलाम भी ऐ चारागर नहीं